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हालात कठिन, सियासी गणित भी कमजोर…

Politics

सियासत में बीते हफ्ते तीन बड़ी घटनाएं हुईं। पहली, महाराष्ट्र की आघाड़ी सरकार पर संकट आ गया, जो अभी जारी है। शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस सरकार बचाने के लिए संघर्ष करती दिख रही हैं। दूसरी, तीन लोकसभा और सात विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के परिणाम आए। विपक्ष को यहां भी निराशा ही हाथ लगी। तीसरी घटना यह रही कि राष्ट्रपति चुनाव के बहाने एकजुट होने की विपक्ष की कोशिश विफल हो गई। नए दलों को अपने पाले में करना तो दूर, वह अपने पुराने सहयोगियों को भी साथ नहीं रख सका। ये घटनाएं विपक्ष के हौसले को कमजोर कर सकती हैं। विपक्ष को अच्छे से मालूम है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली बीजेपी को अगर सचमुच चुनौती देनी है तो उसके नेताओं को अपने तमाम सियासी ईगो अलग रखकर एक मंच पर आना होगा। लेकिन हाल में जो संकेत मिले हैं, वे अच्छे नहीं हैं। दो राज्य महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश में ये पार्टियां अधिक संघर्ष करती दिख रही हैं। हालांकि 2024 में अगर विपक्ष को बीजेपी के लिए चुनौती बनना है तो इन दोनों राज्यों में उसे हर हाल में मुकाबले में आना होगा। दोनों राज्यों को मिलाकर 128 लोकसभा सीटें हैं।

बीजेपी के लिए मुंहमांगी मुराद
पहले बात महाराष्ट्र की करें तो यहां ढाई साल तक मजबूती से चलने के बाद अचानक शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस की सरकार ऐसी लड़खड़ाई कि पूरी तरह बिखरती दिखाई देने लगी। इस बार शिवसेना के अंदर ही बगावत हो गई। बीजेपी को अंदाजा था कि अगर महा विकास आघाड़ी 2024 तक एकजुट रही तो उसके लिए राज्य में परेशानी खड़ी हो सकती है। ऐसे में शिवेसना का कमजोर होना बीजेपी के लिए मुंहमांगी मुराद है तो विपक्षी खेमे के लिए जबर्दस्त झटका। कांग्रेस अभी भी वहां अपनी अंदरूनी गुटबाजी को नियंत्रित करने में पूरी तरह कामयाब नहीं हुई है। शरद पवार की अगुआई में एनसीपी जरूर एकजुट दिख रही है लेकिन मौजूदा सियासी समीकरण में अकेले दम बीजेपी को वह किस हद तक चुनौती दे पाएगी, कहना मुश्किल है। ऐसे में अगले कुछ दिनों में महाराष्ट्र की राज्य सरकार का जो भी हश्र हो, गठबंधन और खासकर शिवसेना में बड़ी दरार पड़ चुकी है जो गठबंधन के लिए आगे की राह कठिन बनाएगी। इसका पहला संकेत साल के अंत में होने वाले मुंबई महानगरपालिका चुनाव में दिख सकता है। अगर शिवसेना इस चुनाव में अपना सबसे मजबूत दुर्ग बचाने में सफल नहीं रहती है तो आगे उसकी मुश्किलें बढ़ती ही जाएंगी। कुल मिलाकर महाराष्ट्र से बदलाव की बयार बहाने की विपक्ष की रणनीति अभी बेटपटरी होती दिख रही है।

उसी तरह उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने समाजवादी पार्टी के सबसे मजबूत गढ़ से दो लोकसभा सीटें छीनकर 2024 से पहले ही खतरे की घंटी बजा दी। इस जीत के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दावा किया कि अगले लोकसभा चुनाव में वह राज्य की सभी 80 सीटों पर जीत दर्ज करेंगे। उनके दावे अपनी जगह, लेकिन बीजेपी ने मुस्लिम बहुल सीट पर जिस तरह जीत दर्ज की वह विपक्ष के लिए जरूर चिंता बढ़ाने वाली है। दरअसल हाल के वर्षों में प्रदेश में बीजेपी को हराने के लिए विपक्ष ने कई प्रयोग किए। अखिलेश यादव और मायावती ने आपस में हाथ मिलाया तो कांग्रेस ने अखिलेश यादव से हाथ मिलाया। लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात ही रहे। ऐसे में महाराष्ट्र की तरह ही उत्तर प्रदेश भी ऐसा राज्य बन गया है जहां बीजेपी दिनोदिन और मजबूत ही होती दिख रही है। बाकी हिंदी पट्टी राज्यों में बीजेपी पहले ही मजबूत है। ऐसे में विपक्ष को आम चुनाव से ठीक पहले इन घटनाक्रमों के बीच संदेश मिल गया कि उसके अच्छे दिन इतनी जल्दी नहीं आने वाले।

हालात कठिन, सियासी गणित भी कमजोर
विपक्ष के लिए हालात तो कठिन हैं ही, उसके सियासी समीकरण भी कमजोर होते दिख रहे हैं। मजबूत बीजेपी से मुकाबला करने की कोशिश में जब भी वे एकजुट होने की कोशिश करते हैं, उनकी आपस की दूरी घटने के बजाय और बढ़ जाती है। राष्ट्रपति चुनाव के दौरान भी ऐसी ही तस्वीर उभरी। जहां विपक्ष इस चुनाव को 2024 से पहले एकजुट होने के लिए सेमीफाइनल मान रहा था, वहीं उसका अपना ही खेमा बिखरता हुआ नजर आने लगा। अब तक जेएमएम ने विपक्षी उम्मीदवार के समर्थन का एलान कर रखा था, मगर एनडीए प्रत्शायी की घोषणा होने के बाद वह दुविधा में पड़ गया। दूसरी ओर बीएसपी ने बिना किसी हिचक के एनडीए उम्मीदवार को समर्थन देने का एलान कर दिया। आप आदमी पार्टी भी विपक्षी उम्मीदवार यशवंत सिन्हा के नामांकन के समय मौके से दूर रही। जबकि विपक्ष नवीन पटनायक, जगन रेड्डी जैसे गैर कांग्रेसी, गैर बीजेपी दलों वाले साथियों के जुड़ने की अपेक्षा कर रहा था। हां, केसीआर जरूर विपक्षी खेमे में आने के लिए तैयार हुए जो अब तक तमाम ऐसे मसलों पर अंतिम रूप से बीजेपी के साथ खड़े दिखते थे। लेकिन इसके पीछे उनकी अपने राज्य की सियासी मजबूरी अधिक थी। दूसरी तरफ बीजेपी अपने सहयोगियों को एकजुट रखने में पूरी तरह सफल रही। हाल के समय में रिश्तों में उतार-चढ़ाव के बावजूद जेडीयू बीजेपी के साथ रही तो चिराग पासवान भी मजबूती से बीजेपी के साथ दिखे, जिनके चाचा ने उनकी पार्टी को तोड़कर बीजेपी से हाथ मिला लिया था। ऐसे में राष्ट्रपति चुनाव के बहाने बीजेपी ने बिहार में अपना सियासी समीकरण बेहतर करने की भी कोशिश की।

कुल मिलाकर राष्ट्रपति चुनाव में भी विपक्ष की रणनीति कमजोर ही दिखी है। उसे पहले से पता था कि जीतने के लिए जो संख्या बल चाहिए वह बीजेपी गठबंधन के पास पहले से है। ऐसे में विपक्ष हार-जीत के चक्कर में पड़े बगैर इस चुनाव का उपयोग अपने पक्ष में नया समीकरण बनाने के लिए कर रहा था, मगर कामयाब नहीं हुआ।(साभार एन बी टी)

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