नई दिल्ली : सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए नौकरी और शिक्षा में 10 प्रतिशत आरक्षण बरकरार रहेगा। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इसलिए भी ऐतिहासिक है क्योंकि इसने इंदिरा साहनी केस में तय की गई आरक्षण की अधिकतम 50 प्रतिशत सीमा का बैरियर भी तोड़ दिया है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 3-2 के बहुमत से दिए अपने फैसले में आरक्षण पर एक नई लकीर खींच दी है।
पहली बार आर्थिक पिछड़ापन को आरक्षण के आधार के रूप में मान्यता
सुप्रीम कोर्ट ने अनारक्षित वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का हक देने वाले 103वें संविधान संशोधन की संवैधानिक वैधता पर सोमवार को मुहर लगा दी। शीर्ष अदालत ने कहा कि 50 प्रतिशत आरक्षण की अधिकतम सीमा ऐसी नहीं है जिसका उल्लंघन न किया जा सके। सुप्रीम कोर्ट ने साथ में यह भी कहा कि आर्थिक आधार पर सकारात्मक कदम लंबे वक्त में आधारित आरक्षण को खत्म कर सकता है। इस फैसले ने अब एक नई लकीर खींच दी है कि सिर्फ सामाजिक और शैक्षिक नहीं, आर्थिक पिछड़ापन भी आरक्षण का आधार होगा।
50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा ऐसी नहीं जो उल्लंघन न हो: सुप्रीम कोर्ट
सीजेआई यूयू ललित, जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, एस. रविंद्र भट, बेला एम. त्रिवेदी और जे बी पार्दीवाला की 5 सदस्यीय बेंच ने 3-2 के बहुमत से ईडब्लूएस आरक्षण की संवैधानिक वैधता पर मुहर लगाई। ईडब्लूएस आरक्षण के साथ केंद्रीय संस्थानों में आरक्षण की कुल सीमा 59.50 प्रतिशत पहुंच गई है। सुनवाई के दौरान केंद्र ने दलील भी दी थी कि अधिकतम आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा इतना भी ‘पवित्र’ नहीं है कि उसका उल्लंघन ही न हो सके।
आरक्षण गैरबराबरी को बराबरी पर लाने का लक्ष्य हासिल करने का एक औजार है। इसके लिए न सिर्फ सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को समाज की मुख्य धारा में शामिल किया जा सकता है बल्कि किसी और कमजोर क्लास को भी शामिल किया जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के दूरगामी असर होंगे। सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामले में दिए अपने ऐतिहासिक फैसले में अधिकतम आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत तय कर दी थी। ईडब्लूएस आरक्षण के साथ ही अब अधिकतम आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा का बैरियर टूट गया है। अब सरकारें 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण की कोशिशें तेज कर सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले और खासकर जस्टिस दिनेश माहेश्वरी की टिप्पणी के बाद आने वाले दिनों में आरक्षण के दायरे में कुछ अन्य नए वर्गों को लाने का रास्ता साफ हो सकता है। जस्टिस माहेश्वरी ने अपने फैसला में कहा कि आरक्षण गैरबराबरी को बराबरी पर लाने का लक्ष्य हासिल करने का एक औजार है। इसके लिए न सिर्फ सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को समाज की मुख्य धारा में शामिल किया जा सकता है बल्कि किसी और कमजोर क्लास को भी शामिल किया जा सकता है।
आरक्षण के लिए नए वर्गों को तय करने का रास्ता साफ
सुप्रीम कोर्ट पहले भी सरकार को आरक्षण के लिए समाज के अन्य कमजोर वर्गों की पहचान करने को कह चुका है। उदाहरण के तौर पर अप्रैल 2014 में किन्नरों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को देखा जा सकता है। तब कोर्ट ने महिला, पुरुष से इतर लिंग की तीसरी श्रेणी ट्रांसजेंडर को मान्यता दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि किन्नरों को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा समुदाय माना जाए और उन्हें नौकरी और शिक्षा के क्षेत्र में आरक्षण दिया जाए। सितंबर 2018 में उत्तराखंड हाई कोर्ट ने भी राज्य सरकार को शिक्षण संस्थाओं और सरकारी नौकरी में किन्नर समुदाय को आरक्षण देने के लिए उचित नियम बनाने को कहा था। बिहार जैसे कुछ राज्य किन्नरों के लिए आरक्षण की व्यवस्था कर चुके हैं। बिहार सरकार ने पुलिस भर्ती में किन्नरों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की है।
खास बात ये है कि जातिगत जनगणना की मांग भी जोर पकड़ रही है। आरजेडी, एसपी समेत कई क्षेत्रीय दल इसकी मांग करते रहे हैं। अगर भविष्य में कभी जातिगत जनगणना होती है और अगर आरक्षित श्रेणी की जातियों की तादाद अभी के अनुमान से ज्यादा पाई जाती है तो निश्चित तौर पर उन्हें आबादी के अनुपात में आरक्षण बढ़ाने की मांग मजबूत होगी। जब से ईडब्लूएस कोटा दिया गया है तब से ही ओबीसी कोटे को 27 प्रतिशत से बढ़ाने की मांग उठती रही है। तर्क है कि 50 प्रतिशत से ज्यादा कोटे का रास्ता साफ हो गया है।
‘जाति आधारित आरक्षण खत्म करने की दिशा में पहला कदम’
जस्टिस जेबी पार्दीवाला ने कहा कि आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर सकारात्मक कदम लंबे वक्त में जाति-आधारित आरक्षण को खत्म कर सकता है। उन्होंने कहा कि आरक्षण का नया आर्थिक पैमाना जातिगत आरक्षण को खत्म करने की दिशा में पहला कदम हो सकता है।
ये समानता के लिए मौत की घंटी: सीजेआई और जस्टिस भट
क्या आर्थिक आधार पर आरक्षण जायज है? इस सवाल पर बेंच के सभी 5 जज सहमत थे कि आरक्षण का आर्थिक आधार संविधान की मूल भावना के खिलाफ नहीं है। हालांकि, इस बात पर जजों की राय बंटी हुई थी कि ईडब्लूएस के तहत सिर्फ उन लोगों को आरक्षण का लाभ क्यों मिले, जो सामान्य वर्ग से हैं। सीजेआई ललित और जस्टिस रविंद्र भट ने एससी, एसटी और ओबीसी को ईडब्लूएस के दायरे से बाहर रखने को ‘भेदभाव वाला और मनमाना’ बताया। एक तरफ जहां जस्टिस माहेश्वरी, त्रिवेदी और पार्दीवाला संविधान संशोधन से सहमत थे, वहीं सीजेआई ललित और जस्टिस भाट ने अपने फैसले में कहा कि एससी, एसटी और ओबीसी को ईडब्लूएस कोटा का लाभ नहीं देना और सिर्फ फॉरवर्ड क्लास के गरीबों को इसके दायरे में रखना ‘समानता के सिद्धांत की मौत की मुनादी’ की तरह है। संविधान संशोधन को जायज ठहराने वाले सभी तीन जजों ने अलग-अलग फैसला सुनाया जबकि जस्टिस भट ने अपने साथ-साथ सीजेआई की तरफ से भी फैसला लिखा।(साभार एन बी टी)