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किन नियमों के तहत सस्पेंड हुए राज्यसभा के 12 सांसद

Politics

नई दिल्ली. संसद के शीतकालीन सत्र 2021 का पहला दिन ही यादगार बन गया. इसे अच्छा और बुरा दिन कहना पक्ष-विपक्ष पर छोड़ा जा सकता है. लेकिन संवैधानिक स्तर पर एक आम आदमी को यह समझना ज़रूरी है कि आखिर जो हुआ उसके पीछे नियम क्या है, कानून क्या कहता है. इस साल संसद के मानसून सत्र के दौरान सदन के नियमों का दुरुपयोग करने और हिंसक व्यवहार के लिए शीतकालीन सत्र के पहले दिन ही 12 राज्यसभा सांसदों को पूरे सत्र के लिए निलंबित कर दिया गया है. ऐसा पहली बार नहीं है जब संसद का सदन इस तरह की अशांति का गवाह बना हो. अक्सर सदन में मामले को हाथ से निकलते हुए देखा गया है और सदस्यों को अपने व्यवहार में अनियंत्रित होते पाया गया है. सदन की प्रक्रिया और कार्यवाही के दौरान सदन की गरिमा बनी रहे, यह सुनिश्चित करना लोक सभा स्पीकर और राज्य सभा के सभापति का दायित्व होता है, उन्हें अपना दायित्व अच्छी तरह से निभाने के लिए कुछ शक्तियां प्रदान की गई हैं, सदस्यों का निलंबन उन्ही में से एक है. आइए यह समझते हैं कि किसी सदस्य के अपनी सीमाओं को पार करके संसदीय शिष्टाचार भंग करने पर किस तरह दंडित किया जाता है.

किस तरह का बर्ताव निलंबन को न्योता देता है
निलंबन एक गंभीर मामला है और इसका फैसला नियमानुसार संसद के दोनों सदनों में समान परिस्थितियों में लिया जाता है, राज्य सभा और लोक सभा की प्रक्रिया और कार्य संचालन के नियम 256 और 374 के मुताबिक पीठासीन अधिकारी को ज़रूरी होने पर एक ऐसे सदस्य का नाम लेने की अनुमति होती है, जो अध्यक्ष के अधिकारों की अवहेलना करता है और जानते बूझते और लगातार ये बर्ताव रखता है. ऐसे सदस्य को नामित करना सदन में उस सदस्य को (सदन की) सेवा से अधिकतम शेष अवधि के लिए निलंबित करने के लिए सदन में प्रस्ताव पेश करने का मार्ग प्रशस्त करता है. यह प्रस्ताव आमतौर पर ध्वनिमत के साथ पास होता है. जैसे 2021 के राज्यसभा के मानसून सत्र के दौरान टीएमसी के सांसद शांतनु सेन के साथ हुआ था, जब उन्होंने सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव के हाथों से बिल को लेकर उसे फाड़ दिया था. एक बार प्रस्ताव पास हो जाने पर निलंबित सांसद को तुरंत सदन की सीमा से बाहर निकलना होता है. दोनों ही सदनों में अगर सदन चाहे तो इस निलंबन को समाप्त करने के लिए प्रस्ताव पारित कर सकता है.

पीठासीन अधिकारी के पास है किसी भी सदस्य की अस्थायी वापसी का प्रावधान
प्रक्रिया के नियमों के अनुसार पीठासीन अधिकारी के पास किसी भी सदस्य की अस्थायी वापसी का प्रावधान होता है. राज्यसभा और लोकसभा की नियमपुस्तिका के नियम 255 और 373 के मुताबिक पीठासीन अधिकारी किसी भी सदस्य को जिसका बर्ताव (उसके विचार में) पूरी तरह से नियम विरुद्ध है, उसे तुरंत परिषद से हटने का निर्देश दे सकता है. लेकिन ये निर्देश सिर्फ उस दिन के लिए ही लागू होता है, जिस दिन इसे किया गया था… कोई भी सदस्य जिसे यह आदेश दिया गया है वह तुरंत प्रभाव से ऐसा करेगा और शेष दिन के दौरान बैठक से अनुपस्थित रहेगा.

क्या पीठासीन अधिकारी की शक्तियां ऐसी कार्यवाहियों के लिए समान होती हैं?
दरअसल लोकसभा के नियमों में एक अतिरिक्त प्रावधान होता है, जो राज्यसभा में लागू नहीं होता है. यह नियम अध्यक्ष को किसी प्रस्ताव के लाए बिना सदस्य को निलंबित करने की अनुमति देता है. नियम 374 ए जिसके तहत अध्यक्ष को यह अधिकार मिलता है, जो 2001 में अस्तित्व में आया था. इसके अनुसार कोई सदस्य सदन के वेल में आने या सदन के नियमों की लगातार अवहेलना करने, नारे लगाने या जानते बूझते काम में बाधा डालने जैसी प्रक्रिया करता है तो ऐसे सदस्य को अध्यक्ष के नामित किए जाने पर, लगातार पांच बैठकों या पूरे सत्र के लिए जो भी कम हो, सदन की सेवा से खुद ही निलंबित हो जाएगा. वहीं लोक सभा सांसद को निलंबन की घोषणा के तुरंत बाद सदन से हटना पड़ता है, यहां भी सदन किसी भी वक्त प्रस्ताव पारित करके निलंबन को रद्द कर सकता है.

क्या हैं सांसदों के लिए दिशानिर्देश
सांसदों के व्यवहार और आचरण के लिए विस्तृत तौर पर नियम निर्धारित किए गए हैं और उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वह इन नियमों के मुताबिक आचरण करेंगे. हालांकि राज्यसभा के आचरण और संसदीय शिष्टाचार को लेकर जिन नियमों का उल्लेख किया गया है, जो अयोग्य आचरण के लिए बना है, उसे विस्तृत रूप से परिभाषित नहीं किया गया है.

हालांकि इसमें यह कहा गया है कि सदस्यों का बर्ताव ऐसा होना चाहिए जिससे सदन की गरिमा बनी रहे यानी सदस्यों का व्यवहार इस तरह का नहीं होना चाहिए जिससे किसी भी तरह से सदन की गरिमा या प्रतिष्ठा का अपमान हो.(साभार न्यूज़18)

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