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पीएम मोदी के खिलाफ नहीं चल पाएगा नीतीश का ‘मंडल दांव’

Politics

नई दिल्ली: राजनीति संभावनाओं का खेल है खासकर भारतीय राजनीति के हिसाब से देखा जाए तो इसका मतलब है कि कुछ भी संभव है वह भी तब जब कोई नेता सत्ता हासिल करने या इसे बनाए रखने की तलाश में हो। पिछले महीने जद (यू) नेता और बिहार के मुख्यमंत्री   नीतीश कुमार ने बीजेपी से नाता तोड़ लिया और राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के साथ चले गए। इस फैसले से कहीं अधिक चर्चा इस बात की हो रही है कि वह 2024 में विपक्ष की ओर से पीएम पद के उम्मीदवार हो सकते हैं। बीजेपी से नाता तोड़ने के बाद से ही नीतीश कुमार ने राहुल गांधी, सीताराम येचुरी, डी राजा, अरविंद केजरीवाल, अखिलेश यादव और के चंद्रशेखर राव समेत कई नेताओं से मुलाकात की है। इसे विपक्षी एकता बनाने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है।

2024 से पहले नीतीश का दांव
नीतीश कुमार के इस कदम और महागठबंधन में लौटने के उनके फैसले पर अलग-अलग प्रतिक्रिया भी सामने आ रही है। जेडीयू और आरजेडी के एक साथ बीजेपी के खिलाफ आने को भाजपा के खिलाफ मंडल की राजनीति के पुनरुद्धार के तौर पर एक वर्ग इसे देख रहा है। वहीं कुछ नीतीश कुमार को विपक्षी राजनीति को एकजुट करने की शक्ति के रूप में भी देख रहे हैं। वहीं तीसरा वर्ग यह भविष्यवाणी कर रहा है कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर उभरेंगे, हालांकि उन्होंने खुद इस महत्वाकांक्षा से इनकार किया है। वहीं इसे मंडल राजनीति को पुनर्जीवित करने के प्रयास की बजाय इसे बीजेपी से मुकाबले में बने रहने के तौर पर देखा जा रहा है।

2019… यूपी का यह चुनाव देखने की जरूरत
नीतीश कुमार और नए गठबंधन को लेकर जो भी कहा जा रहा है इसमें जाने से पहले एक बात यह समझने की जरूरत है कि भारतीय राजनीति में काफी बदलाव आया है। जाति, धर्म और क्षेत्रीय पहचान के साथ-साथ, विकास के मुद्दे अब जनता के बीच अहम है। बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य में किसी भी जाति-आधारित राजनीतिक दावे के जादुई प्रभाव की किसी भी उम्मीद को पूरी तरह से महसूस नहीं किया जा सकता है। दो दलों या इससे अधिक के गठजोड़ पर ऐसा नहीं है कि चुनाव के वक्त वोट का ट्रांसफर पूरी तरह हो जाए। यह यूपी में 2019 के लोकसभा चुनाव में देखने को मिल चुका है। जहां बीएसपी और सपा दोनों दल एक दूसरे का वोट ट्रांसफर कराने में नाकाम रहे।

BJP के खिलाफ मंडल दांव कितना कामयाब
मंडल-प्रेरित राजनीतिक दावे का पुनरुद्धार केवल जाति गणना पर आधारित नहीं हो सकता, बल्कि उन मुद्दों पर भी हो सकता है जो पहचान पैदा करे। साथ ही चुनाव के दौरान इसे वोटों में तब्दील कर सके। यह देखना होगा कि ओबीसी को अपने पक्ष में करने के लिए नीतीश कुमार और उनका नया गठबंधन किस तरह की योजना बनाता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बीजेपी ने पिछले कुछ दशकों में पूरे भारत में OBC के बीच गहरी पैठ बनाई है। इसलिए भाजपा के खिलाफ मंडल की राजनीति के मजबूत होने और तेजी से उभरने की संभावना कम लगती है।

OBC पर बीजेपी ने बना रखी है अच्छी पकड़
एक और कारण है कि मंडल की तरह लामबंदी न हो पाए क्यों कि पिछले चुनावों में देखने को मिला है कि हिंदुत्व वाले मुद्दे पर जाति समीकरण टूटे हैं। नीतीश कुमार की बिहार-केंद्रित छवि के कारण, उनके लिए विभिन्न राज्यों में ओबीसी जातियों के लिए राजनीतिक मसीहा बनना मुश्किल होगा। 90 के दशक के बाद देश में ओबीसी समुदायों और अन्य सामाजिक समूहों के बीच एक विशाल मध्यम वर्ग पैदा हुआ है। इस नए मध्यम वर्ग का एक बड़ा वर्ग हिंदुत्व की ओर आकर्षित होता है और देश के विभिन्न हिस्सों में उसका झुकाव सीधे तौर पर बीजेपी की तरफ है।

राष्ट्रीय स्तर पर आखिर कितना प्रभाव
नीतीश कुमार का यह कदम बिहार की राजनीति को प्रभावित कर रहा है लेकिन राष्ट्रीय राजनीति को प्रभावित करने की संभावना नहीं है। यह सच है कि भारत में विपक्षी राजनीति, जो काफी हद तक विभाजित है और विभिन्न प्रकार के संकटों से घिरी है। ऐसे में नीतीश कुमार की तरफ वो देख सकते हैं लेकिन नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक विजेता विकल्प के रूप में देखना अभी भी मुश्किल है। कई यू-टर्न के कारण नीतीश की छवि को धक्का लगा है और इससे भाजपा विरोधी गठबंधन में उनका प्रभाव कमजोर हो सकता है।(साभार एन बी टी)

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