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थाल में सजाकर मिल रहा था प्रधानमंत्री पद, लेकिन ठुकरा दिया…

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नई दिल्ली : विधायक, सांसद, केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष, राज्यपाल, उपराष्ट्रपति फिर राष्ट्रपति। एक ऐसा शख्स जो अलग-अलग वक्त पर इन सभी पदों पर रहा हो। जिनके सामने प्रधानमंत्री बनने की भी पेशकश हुई थी लेकिन उन्होंने ठुकरा दिया। हम बात कर रहे हैं शंकर दयाल शर्मा की। किस्से राष्ट्रपति चुनाव की सीरीज में पेश है देश के नौवें राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा का सियासी सफरनामा और उनसे जुड़े दिलचस्प किस्से।

प्रधानमंत्री पद के ऑफर को ठुकरा दिया
शंकर दयाल शर्मा अगर हामी भर दिए होते तो 1991 में पीवी नरसिम्हा राव की जगह वह प्रधानमंत्री बने होते। उस वक्त वह उपराष्ट्रपति थे लेकिन गांधी परिवार के इतने भरोसेमंद थे कि राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी ने उनके सामने कांग्रेस अध्यक्ष के साथ-साथ प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी संभालने का प्रस्ताव दिया था। शर्मा ने ये पेशकश ठुकरा दी जिसके बाद ये दोनों जिम्मेदारियां पीवी नरसिम्हा राव को मिली।

1991 के लोकसभा चुनाव के पहले चरण की वोटिंग के ठीक अगले दिन 21 मई को राजीव गांधी की एक चुनावी सभा में हत्या हो गई। इसके बाद बाकी बचे दो चरणों की वोटिंग को टाल दिया गया। आखिरकार 12 जून और 15 जून को बाकी चरणों के लिए वोटिंग हुई। 534 सीटों में से पहले चरण में जिन 211 सीटों पर वोटिंग हुई थी, उसमें कांग्रेस का प्रदर्शन काफी लचर था। लेकिन राजीव गांधी की हत्या के बाद बाकी बचे दोनों चरणों में कांग्रेस के पक्ष में सहानुभूति लहर देखने को मिली। चुनाव में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिली। कांग्रेस 232 सीट जीतकर सिंगल लार्जेस्ट पार्टी के तौर पर उभरी। (पंजाब में लोकसभा चुनाव के लिए वोटिंग 19 फरवरी 1992 को हुई थी, जिसमें कांग्रेस ने 13 में से 12 सीटों पर जीत हासिल की थी। इस तरह लोकसभा में उसके सांसदों की तादाद बढ़कर 244 हो गई।)

20 जून 1984 को कांग्रेस वर्किंग कमिटी की बैठक में शंकर दयाल शर्मा (लाल घेरे में)। तस्वीर में इंदिरा गांधी, प्रणब मुखर्जी, नरसिम्हा राव, आर. वेंकटरमन, एम. चंद्रशेकर, सरदार दरबारा सिंह, शंकर दयाल शर्मा, राजीव गांधी समेत अन्य नेता दिख रहे हैं।

कांग्रेस ने बहुमत का जुगाड़ कर लिया लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये था कि प्रधानमंत्री कौन बने। सबकी निगाहें राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी पर थी जिन्हें इसका फैसला करना था। उस दौर में गांधी परिवार के बेहद भरोसेमंद कुंवर नटवर सिंह और अरुना आसिफ अली को अचानक सोनिया गांधी का संदेश आता है कि वे तत्कालीन उपराष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा से मिलें। दोनों को एक बड़ी जिम्मेदारी दी गई थी। जिम्मेदारी ये कि शर्मा को कांग्रेस अध्यक्ष बनने और प्रधानमंत्री पद संभालने के लिए मनाना। दोनों शंकर दयाल शर्मा के पास सोनिया का प्रस्ताव लेकर पहुंचे लेकिन उन्होंने उम्र और स्वास्थ्य का हवाला देकर इस पेशकश को ठुकरा दिया। बाद में पीएन हक्सर के सुझाव पर सोनिया गांधी ने पीवी नरसिम्हा राव को कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद संभालने को हरी झंडी दी।

एक साल बाद राष्ट्रपति के लिए तैयार हो गए शर्मा
1991 में प्रधानमंत्री पद की पेशकश ठुकराने वाले शंकर दयाल शर्मा एक साल बाद ही 1992 में राष्ट्रपति पद के लिए तैयार हो गए। कांग्रेस ने तत्कालीन उपराष्ट्रपति शर्मा को राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनाया। उनका मुकाबला बीजेपी और राष्ट्रीय मोर्चा समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार जॉर्ज गिल्बर्ट स्वेल से था। शर्मा आसानी से चुनाव जीत गए। उन्हें मिले वोट का इलेक्टोरल वैल्यू 675,864 रहा, जबकि स्वेल का 346,485 रहा। मशहूर वकील राम जेठमलानी भी मैदान में थे लेकिन उनका इलेक्टोरल वैल्यू महज 2,704 रहा। इस तरह शंकर दयाल शर्मा देश के नौवें राष्ट्रपति निर्वाचित हुए जो 1997 तक अपने पद पर रहे।

जब राष्ट्रपति रहते अपनी ही बेटी और दामाद के हत्यारों की दया याचिका का करना पड़ा निपटारा
बतौर राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने अपने कार्यकाल के दौरान आईं सभी 14 दया याचिकाओं को खारिज किया था। इनमें उनकी अपनी ही बेटी और दामाद के हत्यारों की दया याचिकाएं भी शामिल थी। 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली समेत देश के तमाम हिस्सों में सिख-विरोधी दंगे हुए थे। तब शर्मा आंध्र प्रदेश के राज्यपाल थे। राजीव गांधी समेत कांग्रेस के कई बड़े नेताओं पर दंगे भड़काने के आरोप लगे थे। उनमें से एक नाम साउथ दिल्ली से कांग्रेस के तत्कालीन सांसद ललित माकन का भी था जो शंकर दयाल शर्मा के दामाद थे। 31 जुलाई 1985 को आतंकियों ने ललित माकन, उनकी पत्नी गीतांजलि और सहयोगी बाल किशन को गोलियों से भून डाला।

ललित माकन हत्याकांड में आतंकियों हरजिंदर सिंह जिंदा और सुखदेव सिंह सूखा को फांसी की सजा हुई। उन्होंने फांसी से बचने के लिए राष्ट्रपति के पास दया की अर्जी दी। संयोग देखिए, शंकर दयाल शर्मा 1992 में राष्ट्रपति बने और उनके पास आईं दया याचिकाओं में उनकी बेटी और दामाद के हत्यारों की अर्जियां भी शामिल थीं। उन्होंने दोनों आतंकियों की दया याचिका खारिज कर दी जिसके बाद 9 अक्टूबर 1992 को हरजिंदर सिंह जिंदा और सुखदेव सिंह सूखा को पुणे की यरवदा जेल में फांसी दे दी गई।

उसूलों के पक्के
शंकर दयाल शर्मा उसूलों के बहुत पक्के शख्स थे। 1996 के लोकसभा चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला था। लेकिन उन्होंने सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी बीजेपी को ये जानते हुए भी सरकार बनाने का न्योता दिया कि उसके पास पर्याप्त समर्थन नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी ने पहली बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली लेकिन उनकी सरकार बहुमत साबित नहीं कर पाई और महज 13 दिनों ही चल पाई। उपराष्ट्रपति रहते हुए शर्मा एक बार राज्यसभा की कार्यवाही का संचालन कर रहे थे। सांसदों के हंगामे पर वह यह कहते हुए आसन छोड़कर चले गए कि वह ‘लोकतंत्र की हत्या’ में कोई पक्ष नहीं बनना चाहते। एक बार उन्होंने कहा था कि उनका मानना है कि गलती करने वालों से बदला लेने का सबसे सही तरीका उनके प्रति दयालुता दिखाकर उन्हें शर्मिंदा करना है।(साभार एन बी टी)

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